Thursday, December 30, 2010

निरंतर चलना


बिमल डे की पुस्तक महातीर्थ के अंतिम यात्री से -
मैं निरंतर चल रहा था, किंतु लगातार एक जैसा दृष्य दृश्य होने से लगता था कि मैं वहीं रह गया हूं। ... लगता था कि सांपो (ब्रह्मपुत्र) की विपरीत दिशा में मैं अविराम तैर रहा हूं, किंतु स्रोत को पछाड़ कर आगे नहीं बढ़ पा रहा हूं। फिर भी कैलासनाथ के दर्शन का उत्साह ज्यों का त्यों था, उस महातीर्थ के दर्शन के उत्साह ने ही मुझे इतना मनोबल दिया था। दिन में सूरज और रात में चांद तारे मुझे राह दिखाते। ... मेरी आत्मा मेरी देह को खींच कर कैलास की ओर ले जा रही थी, वैसे ही विश्व प्राण समग्र विश्व को अमृत के सन्धान में ले जा रहा था, हम सब पथिक मात्र थे।

2 comments:

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

दृष्य़ -> दृश्य

सञ्जय झा said...

gyan dadda kaise hain....

nav varsh ki mangalkamnaye....

sadar pranam.